तुम कौन हो ?

 कृष्ण

तुम कौन हो 

आसमान का चाँद? 

जिसको मैं चकोर बन निहारती हूँ

पूर्णिमा की रात को

बाँहें फैलाये तुम तक आना चाहती हूँ

दूरी कभी तय नहीं कर पाती हूँ

सुबह प्राण निकल जाते हैं

तुमसे प्यार बयाँ तक नहीं कर पाती हूँ


तुम पारस के पत्थर हो क्या?

छू कर सोना बना देते हो

अपने रंग में रंगने का जादू करते हो

दुनिया मुझे आभूषण बना कर सँवर जाती है

हार की चमक पर इतराती है

कभी तुम्हारे हृदय पर भी चमकूँ

मेरी बाँहों का हार तुम्हारे गले हो

ऐसी किस्मत मैं कहाँ पाती हूँ !


तुम दरिया हो क्या?

आँचल में समेटती हूँ तुम्हें  

दिल में छिपा लेना चाहती हूँ

और बूँद-बूँद शब्द बन कर 

आँचल से छन-छन कर

कागज पर एहसास बन टपकने लगते हो

ऊँगलियाँ तुम्हें छूने कागज को टटोलती है

तुम्हारे किसी आकार को कहाँ महसूस कर पाती हूँ


तुम दीप हो क्या?

मेरी अँधेरे रास्तों में

राह दिखाने के लिए चमकने लगते हो

दुनियादारी की उलझनें कम हो जाती हैं

तथा कथित मंजिल मिल जाती है

तुम्हारी रोशनी में तुमको ढूँढती हूँ

हर साए को पकड़ने की नाकाम कोशिश करती हूँ

लेकिन खाली हाथ ही रह जाती हूँ


तुम सच की तलाश हो

या रूह की प्यास हो

मुझको बताओ, मेरा है वजूद क्या

तुम्हारा कोई अक्स है क्या

दीदार करूँ ऐसी कोई सूरत है क्या

किसी जनम में तुमसे पूर्ण मिलन है क्या 

जब मैं राधा, मीरा, ललिता न रहूँ

मैं भी कृष्ण में मिल जाऊँ  

कृष्ण बन जाऊँ

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